विमर्श … खुद के अंदर की और अपने आसपास के साथ -२, दूर दराज की चीजों पर भी , गहरी ,वस्तुनिस्ठ और दीर्घकालिक सत्यों को जानने ,पहचानने की कोशिश करना।
गाँव-गिरांव और कस्बों -नगरों के संवैधानिक और अधुनिक विमर्श की परिधि में लाना और विकास के माडल के असुंतलन और ताकतवर के पक्ष में लगातार होते झुकाव को समझकर उसे बृहद सामाजिक सरोकारों से जोड़ने के लिए जनकल्याण में लगी समस्त शक्तियों को एक साथ लाने की भी कसरत करते रहना।
और असहमति के साथ -२ संबंधों का निर्वाह करना विमर्श की अनिवार्यता है।
मारा..मारी..तीन पांच...और ९९ के चक्कर में असली टंच काम तो सिरे से छुट ही जाता है...यही नहीं..जिंदगी का सिरा ही हाथ से निकल जाता है..और फिर रेत को मुट्ठी में बंधने की हर कोशिश इन्सान की असफल होती जाति है तब तक,जब तक की सीमेंट के साथ उसे सांचे में ढालने की समझ और तकनीक न दिमाग में जाये. उसी तकनीक की तलाश में तालाबों में डुबकियाँ लगता में फिर से एक नयी दुबकी लगाने को आतुर हूँ..और कोशिश करूंगा..की पानी न पी जून..अधिक तैरने के चक्कर में..क्योंकि मुझे पता है अधिक या कम मात्रा का महत्व नहीं है..महत्त्व है तो ..इस दौर में आक्सीजन और गहरी सांस का जो हमें तलब में डूम कर मर जाने से बचाती है.
मारा..मारी..तीन पांच...और ९९ के चक्कर में असली टंच काम तो सिरे से छुट ही जाता है...यही नहीं..जिंदगी का सिरा ही हाथ से निकल जाता है..और फिर रेत को मुट्ठी में बंधने की हर कोशिश इन्सान की असफल होती जाति है तब तक,जब तक की सीमेंट के साथ उसे सांचे में ढालने की समझ और तकनीक न दिमाग में जाये.
ReplyDeleteउसी तकनीक की तलाश में तालाबों में डुबकियाँ लगता में फिर से एक नयी दुबकी लगाने को आतुर हूँ..और कोशिश करूंगा..की पानी न पी जून..अधिक तैरने के चक्कर में..क्योंकि मुझे पता है अधिक या कम मात्रा का महत्व नहीं है..महत्त्व है तो ..इस दौर में आक्सीजन और गहरी सांस का जो हमें तलब में डूम कर मर जाने से बचाती है.