Friday, April 4, 2014

स्त्री की चिंता  या स्त्री विमर्श की  !!?
महिला में सौन्दर्य देखना कोई बहुत बड़ी रचनात्मकता नहीं,और न ही महिलाओं को बहुत सुन्दर दिखाने के फेर में पड़ना चाहिए। बल्कि महिला भी अपने काम,संघर्ष और उपलब्धियों से जिस दिन प्रेम करने लगेगी ,उसी दिन से उसकी असली आजादी और उन्नति शुरू हो जायेगी। वह न करे मेकअप ,वह न सजे ,उसकी मर्जी हो तो सज भी ले ,उसपर न लिखी जाएँ नख-शिख वर्णन की कवितायें ,उसके मात्रत्व को न उकेरा जाये महान बनाकर ,न बनाया जाये उसे ,कविता की प्रेरणा ,और न की जाये उसकी प्रकृति के सौन्दर्य से तुलना। 
इसकी कत्तई जरूरत जिस दिन नारी को नहीं रहेगी,उस वक्त उसके मनुष्य होने ,वैज्ञानिक बनने ,समाजशाश्त्री बनने ,नेता बनने ,साहित्यकार बनने ,यायावर बनने ,और ढेरों रोमांचक और ज्ञानवर्धक अनुभवों को दुनिया से प्राप्त करने की सम्भावना पूर्ण हो जायेगी। तब उस नारी का दर्शन होगा ,जिसे पुरुष -स्त्री बराबरी का तमगा नहीं लटकाना होगा। तब खुद बी खुद दोनों पहिये अपनी-२ भूमिका और अस्तित्व को पूर्णतः निभाएंगे। जरा सोचिये वह दुनिया कितनी खुबसूरत होगी.और कितनी आनंददायक भी।
पर
 क्या यह संभव है ? हाँ !यह संभव हो रहा है .
अब एक क्रांति की जरूरत है....सेक्सुअल रेवोल्युशन .
नारी ..स्त्री...वह पुरुष की दासी और उसकी फोटोस्टेट दोनों बनने से इनकार कर दे..आज वाली नहीं..जो पश्चिम की भोगवादी जाल में फंसी हुयी है..इससे उलट..एक नयी दिशा में..नारी को दासता..के साथ प्रोडक्ट ..बनने के मोह से निकलना होगा...इसके लिए एक नयी आग चाहिए...जो उसको..कुंए और खाई दोनों से बचा कर बदलने के लिए तैयार करे...यदि येसा हो सके..तो हम एक नए मनुष्य..नयी मनुष्यता को पा सकते हैं.

Thursday, January 30, 2014

गाँव..की जाड़ा....
खिचड़ी के बाद जमीन पर बिछे पुआल के गद्दों की जरुरत नहीं रह जाती थी,पर हम बच्चे लोग उसे होली तक खेलने के लिए अस्तित्व में बनाये रखते थे ,उस पर सोने का मजा ही अलौकिक था ,डनलप और कसी भी आधुनिकतम गद्दे से लाखगुना बेहतर आराम मिलता था ,और वैसे भी हम रात में सोते थे उत्तर की ओर पैर करके ,सुबह दक्षिण में सूर्योदय होता था . 
पढाई भी होती थी,और दुर्घटनाएं एभी होती थीं ,बताते हैं ,मेरे पिताजी रात में ढिबरी की रौशनी के सामने
पढ़ते-२ सो गए ,जलती ढिबरी गिर गयी ,अगल-बगल पोरा[पुआल ]जलने लगी ,जब उसकी आंच पिताजी को महसूस हुयी तो हडबडा कर पानी-वानी से उसे बुझाये .
वैसे उनके लिए खतरा और ज्यादा इसलिए भी था क्योंकि वे नींद से बचने के लिए अपनी चुंडी रस्सी से उपर खप्पर की छत की करी [मोटी लकड़ी ]में बाँध कर पढ़ते थे ,तो अप्पत्ति अवस्था में बहुत जल्दी भाग भी नहीं सकते थे .इसलिए कह सकते हैं की बाल-बाल बचे थे .
पर गाँव की वे अँधेरी रातें और धुप भरे दिन बहुत हमें ताकतवर बनाये ,जीवन जीने के लिए जो संघर्ष और शिद्दत हम बच्चों को दिखानी पड़ी थी,उसने हमारी प्रतिरोधी क्षमता को बहुत चौचक बना दिया होगा,जिसके बूते ही आज आराम तलबी में समय काटने के बाद भी बीमारियों और परेशानियों से जूझने की दम बनी हुयी है .नहीं तो ये शहरी अप-संस्कृति प्रदुषण के अंधड़ हमें उड़ा ही ले जाते,कहीं का नहीं नहीं छोड़ते .
तो कास्मोपोलिटन निवासियों जरा थोडा-२ अपने 'अमूल बेबियों ' को ताज़ी जुताई हुए सब्जी के ही सही भुरभुरी जमीं में लोटवाइ लाओ भाई .बहुत अलहदा व्यक्तिव निखरै कै संभावना बनी रह सकेगी .
अरहर के खेत की खुत्थी कितनों के पाँवों में घुसी ?हम लोगों को बचपन में खुले में शौच करना ही था ,मेरे गाँव में ५२ बीघे का चारागाह था ,सब उसमे उत्सर्जन करते थे ,थोडा दूर था ,तो हम बालक लोग कई बार तीव्र दबाव के वशीभूत होकर गाँव से सटे खेतों में ही निपटान कर लेते थे ,जिसके लिए अरहर के पेड़ों की छाया सर्वाधिक आदर्श स्थल होती थी,इस चक्कर में कभी-२ सरपट दौड़ भी लग जाती थी...और खेत के अंदर कहीं-कहीं काटी गयी अरहर के पेड़ का निकला मोटा नुकीला तना चाकू की तरह हम लोगों के पैरों में धंस जाता था,खून तेजी से निकलता,उसमे हम हमलोग मिट्टी और खपड़े के टुकड़े लगाकर खून रोकते ,कहटते थे ,की खपड़े का लाल टुकड़ा खून रोक देता है .आज हम वकीलों की भाषा में उस चोट को 'काजिंग हर्ट विथ शार्प वेपन्स '..कह सकते हैं ,यानी अरहर का नुकीला हिस्सा हमारा अपराधी हो जाता था .
के और दिलचस्प काम यह होता था,की निपटान के दौरान यदि अरहर में फल आये होते थे ,तो दो-चार हरे-२ गुच्छे हम लोग मुंह से छील-२ कर खाते रहते थे ...आज सोचते हैं की तमाम 'अन्हाईजेनिकता '
के बावजूद उन पलों को जीना और आज उनकी स्मृति एकदम मस्त कर देती है .