Thursday, January 30, 2014

गाँव..की जाड़ा....
खिचड़ी के बाद जमीन पर बिछे पुआल के गद्दों की जरुरत नहीं रह जाती थी,पर हम बच्चे लोग उसे होली तक खेलने के लिए अस्तित्व में बनाये रखते थे ,उस पर सोने का मजा ही अलौकिक था ,डनलप और कसी भी आधुनिकतम गद्दे से लाखगुना बेहतर आराम मिलता था ,और वैसे भी हम रात में सोते थे उत्तर की ओर पैर करके ,सुबह दक्षिण में सूर्योदय होता था . 
पढाई भी होती थी,और दुर्घटनाएं एभी होती थीं ,बताते हैं ,मेरे पिताजी रात में ढिबरी की रौशनी के सामने
पढ़ते-२ सो गए ,जलती ढिबरी गिर गयी ,अगल-बगल पोरा[पुआल ]जलने लगी ,जब उसकी आंच पिताजी को महसूस हुयी तो हडबडा कर पानी-वानी से उसे बुझाये .
वैसे उनके लिए खतरा और ज्यादा इसलिए भी था क्योंकि वे नींद से बचने के लिए अपनी चुंडी रस्सी से उपर खप्पर की छत की करी [मोटी लकड़ी ]में बाँध कर पढ़ते थे ,तो अप्पत्ति अवस्था में बहुत जल्दी भाग भी नहीं सकते थे .इसलिए कह सकते हैं की बाल-बाल बचे थे .
पर गाँव की वे अँधेरी रातें और धुप भरे दिन बहुत हमें ताकतवर बनाये ,जीवन जीने के लिए जो संघर्ष और शिद्दत हम बच्चों को दिखानी पड़ी थी,उसने हमारी प्रतिरोधी क्षमता को बहुत चौचक बना दिया होगा,जिसके बूते ही आज आराम तलबी में समय काटने के बाद भी बीमारियों और परेशानियों से जूझने की दम बनी हुयी है .नहीं तो ये शहरी अप-संस्कृति प्रदुषण के अंधड़ हमें उड़ा ही ले जाते,कहीं का नहीं नहीं छोड़ते .
तो कास्मोपोलिटन निवासियों जरा थोडा-२ अपने 'अमूल बेबियों ' को ताज़ी जुताई हुए सब्जी के ही सही भुरभुरी जमीं में लोटवाइ लाओ भाई .बहुत अलहदा व्यक्तिव निखरै कै संभावना बनी रह सकेगी .

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