Wednesday, November 11, 2015

संसार के पहले वामपंथी वरूण के पुत्र नारद थे ,उन्होंने अपने सौतेले भाई वशिष्ठ के विरोध में इस पंथ को अपनाया था।हालांकि भृगु वंशी इसके असली स्थापक थे ,लेकिन किसी व्यक्ति के तौर पर प्रथम नाम नारद का आता है जिसने वेदों मे वाम विधि की रचना करते हुए स्थापना की और इंद्र जैसे गैरप्रतिष्ठित राजा, (जो कि अपनी स्थिति कैस्पियन सागर के पास नवनिर्मित इंद्रनगरी और देव उपाधि को प्रचारित एवं मजबूत करने के लिए कुछ भी करने को तैयार था) से मधु और पुरस्कार लेकर उसकी स्तुति में एक सूक्त की रचना कर दी(जैसे आधुनिक कम्युनिस्टो ने इतिहास मे कांग्रेस का चारण पाठ किया है)।
इसीलिए नारद वामदेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।पहला वामपंथी भी मनमौजी ,आवारा और भुक्खड प्रकृति का था। कौशिक ग्रामपति के अवैध पुत्र 'काकेशियन' इंद्र ने बडा होकर पिता को मारकर खुद को ग्रामपति बनाया और बाद में अनेक जीत हासिल करके खुद को 'देवता'नाम से घोषित किया।और अपनी नगरी को देवलोक के रूप में प्रतिष्ठित कराया।इंद्र के पहले 'देवता 'नाम का कोई अस्तित्व नहीं था।
नारद यानी वामदेव का चिरस्मरण रखने की आवश्यकता है😊!
सहिष्णुता एक नकारात्मक अवधारणा है।सहिष्णुता और असहिष्णुता में कोई मौलिक भेद नहीं होता।बस परिणामात्मक अंतर होता है।
सहिष्णुता का अर्थ सब्र करना है तो असहिष्णुता का अर्थ है सब्र का पैमाना छलक जाना।अर्थात सहन करने की शक्ति जिसे आम बोलचाल में सहन करने की शक्ति कहते हैं ,वही दूसरे शब्दों में सहनशीलता है।
और सहनशीलता की भी अपनी एक सीमा होती है।सहनशीलता व्यक्तिगत और सामाजिक भी होती है।आदमी को बहुत कुछ मजबूरी में सहन होता है ,तो कुछ चीजें वह स्वभाववश सह लेता है।सहता रहता है।लेकिन आखिर कब तक ???
इसलिए किसी भी व्यक्ति अथवा समाज देश की सहिष्णुता उसके धैर्य और सहने की शक्ति पर निर्भर करती है , इससे भी साफ़ होता है की सहिष्णुता एक नकारात्मक या निरोधक वृत्ति है जो स्वतः स्फूर्त होने की जगह कंडीशनल होती है वह अपने पर नियंत्रण रखने की कोशिश है।
इसलिए सहिष्णुता कोई यैसी अवधारणा नहीं है जो बहुत आदर्श और असीमित प्रकार की मानवता की भावना से ओतप्रोत होती है।
वह एक तरह की मानसिक अवस्था होती है जो हमारे सब्र रखने और विपरीत चीजों लोगों और परिस्थितियों को सहन करने की शक्ति पर निर्भर करती है।
इसलिए यह किसी व्यक्ति समाज और राष्ट्र का सकारात्मक पक्ष नहीं बल्कि उसके अंतर्विरोधों को भी दर्शाती है ,और आपसी खींचतान और टकराव को कन्ट्रोल यानि नियंत्रित रखने की कोशिश का स्वरूप है।
इसलिए यह हमेशा संवेदनशील रहती है रहेगी।सब्र के पैमाने का क्या ?? वह कभी भी छलक सकता है।तो उसे सबको ध्यान रखना पड़ता है।
ताकि इस चक्कर में सौहार्द्र न बिगड़ या खत्म हो जाये।क्योंकि सौहार्द्र ही असल सक्रात्मकता है जो देश समाज और व्यक्ति को आगे आगे बढ़ाता है।यह अगली पोस्ट में चर्चा का विषय होगा।
the meaning and masic of smart thinking--

जनता भी स्मार्ट वोटिंग करने लगी है ।यह निश्चित रूप से जागरूकता और समझदारी ही कही जायेगी की सामूहिक मन में अब उपलब्ध विकल्पों में से बेहतर को चुनने का विवेक जागता जा रहा है।
बिहार का चुनाव या कुछ वक्त पहले का दिल्ली चुनाव हो अथवा फिर महाराष्ट्र का हर जगह हंग असेम्बली की मजबूत आशंकाएं थी ,पर जनता ने सबको बहुमत देकर अपनी स्थायी जागरूकता और विवेक का जो परिचय दिया है उससे साफ है कि एक तो इससे नेताओं को जवाबदेह बनना पड़ेगा दूसरा यह कि गठबंधन राजनीती के दिन खत्म होने को आ गए हैं।
नीतीश का हालाँकि कुछ और सीटें मिली होतीं तो और बेहतर होता लेकिन नीतीश को बिहार के हर वर्ग ने अपना ब्रांड मान लिया है।यह बिलकुल स्पष्ट है।
इसलिए बिहारियों को या शॉटगन को गाली गलौज देने से कोई लाभ नहीं ,नितीश विरोधोयों को कुछ सकारात्मक करना होगा।क्योंकि किसी लाइन को छोटा करने के लिए उसे मिटाने की कोशिश करना गलत होता है ,बल्कि समानान्तर एक बड़ी रेखा खींचनी पड़ती है।स्मार्ट सोच ! 
India will alwayes Undivided Nation !
भारत में राष्ट्र बहुत पहले से ही मौजूद था।हाँ वह शासकों में नहीं विभिन्न राज्यों और रियासतों के अधीन रह रही जनता में समान रूप से विद्यमान था।और यह इतिहासिक तथ्य भी है कि आधुनिक काल का जो भारत है।उसको बनाने में ख़पीं 554 रियासतों के राजाओं से अधिक उनकी जनता की पहल पर निर्मित हो सका था।दक्षिण त्रावणकोर से लेकर उत्तर पश्चिम जोधपुर जूनागढ़ तक आम जनता के प्रत्यक्ष दबाव और आंदोलनों ने रियासतों को भारत में विलय करके एक राष्ट्र राज्य के निर्माण की नीव रखी।
इसलिए भी और गुप्त काल के प्राचीन वक्त में भी भारतीय राष्ट्र यहाँ की जनता में रच बस गया था ,मौर्य वंश से जो इस भारतीय राष्ट्रिय एकता के तत्व उदभूत व निर्मित हुए थे वह 1000 साल तक राजाओं में भी बने रहे।हर्ष के काल में जब भारत आखिरी बार राष्ट्रिय एकसूत्रता में बंधा दीखता है।तो तब भी वह राजाओ के नहीं आम जनमानस के आपसी संपर्क रहनसहन सोच और व्यवसाय व्यापर तथा शिक्षा के चलते था।
हाँ शुरुवाती मुस्लिम आक्रांताओं के आने तक राजपूत क्षत्रिय ब्राह्मण और वैश्य और शुद्र राज्य भारतीय राष्ट्र की राजनैतिक एकता को भूल आपस में लड़ने लगे थे।खूब कलह जारी था।
इसलिए हारे और गुलाम हुए।तथा हजार साल गुलाम रहे।बीच में अकबर ने फिर से एक बार अखिल भारतीय राष्ट्रिय एकता के तत्व को समझकर भारत को एकत्व के सूत्र में वैसे ही बांधने की कोशिश की जैसे कभी चाणक्य ने किट था और वैसे से भी बेहतर फिर सरदार पटेल ने 1947 में 554 रियासतों और ब्रिटिश भारत को मिलकर एक करके दिखा दिया कि भारतीय एक राष्ट्र ही हैं जबकि अंग्रेज तो सबको स्वतन्त्र होने को छोड़ जा रहे थे।
लेकिन यहाँ यह ध्यान रखना अनिवार्य है की पूरी भारतीय जनता (रियासती और गैर रियासती दोनों) राष्ट्रिय सोच की नहीं होती और जनांदोलन करके रियासतों के मुखियों को मजबूर न करती तो भारत का दो बटे तीन हिस्सा अलग अलग देश बन गया होता।क्योंकि रजा और जमींदार तो चाहते ही थे की उनकी सत्ता बनी रहे।
इसलिए भारतीय उपमहाद्वीपीय जनता में राष्ट्र हमेशा से मौजूद था।नेताओं में तो खैर आज भी कितनो में है ? इसीलिए जनता में व्याप्त राषट्रीयता उसकी अभिव्यक्ति का अवसर आते ही वह अभिव्यक्त भी हो गयी।
और इसीलिए जन जन में सिक्त हमारा प्राचीन राष्ट्र भारत सदा बना रहेगा।

Friday, April 4, 2014

स्त्री की चिंता  या स्त्री विमर्श की  !!?
महिला में सौन्दर्य देखना कोई बहुत बड़ी रचनात्मकता नहीं,और न ही महिलाओं को बहुत सुन्दर दिखाने के फेर में पड़ना चाहिए। बल्कि महिला भी अपने काम,संघर्ष और उपलब्धियों से जिस दिन प्रेम करने लगेगी ,उसी दिन से उसकी असली आजादी और उन्नति शुरू हो जायेगी। वह न करे मेकअप ,वह न सजे ,उसकी मर्जी हो तो सज भी ले ,उसपर न लिखी जाएँ नख-शिख वर्णन की कवितायें ,उसके मात्रत्व को न उकेरा जाये महान बनाकर ,न बनाया जाये उसे ,कविता की प्रेरणा ,और न की जाये उसकी प्रकृति के सौन्दर्य से तुलना। 
इसकी कत्तई जरूरत जिस दिन नारी को नहीं रहेगी,उस वक्त उसके मनुष्य होने ,वैज्ञानिक बनने ,समाजशाश्त्री बनने ,नेता बनने ,साहित्यकार बनने ,यायावर बनने ,और ढेरों रोमांचक और ज्ञानवर्धक अनुभवों को दुनिया से प्राप्त करने की सम्भावना पूर्ण हो जायेगी। तब उस नारी का दर्शन होगा ,जिसे पुरुष -स्त्री बराबरी का तमगा नहीं लटकाना होगा। तब खुद बी खुद दोनों पहिये अपनी-२ भूमिका और अस्तित्व को पूर्णतः निभाएंगे। जरा सोचिये वह दुनिया कितनी खुबसूरत होगी.और कितनी आनंददायक भी।
पर
 क्या यह संभव है ? हाँ !यह संभव हो रहा है .
अब एक क्रांति की जरूरत है....सेक्सुअल रेवोल्युशन .
नारी ..स्त्री...वह पुरुष की दासी और उसकी फोटोस्टेट दोनों बनने से इनकार कर दे..आज वाली नहीं..जो पश्चिम की भोगवादी जाल में फंसी हुयी है..इससे उलट..एक नयी दिशा में..नारी को दासता..के साथ प्रोडक्ट ..बनने के मोह से निकलना होगा...इसके लिए एक नयी आग चाहिए...जो उसको..कुंए और खाई दोनों से बचा कर बदलने के लिए तैयार करे...यदि येसा हो सके..तो हम एक नए मनुष्य..नयी मनुष्यता को पा सकते हैं.

Thursday, January 30, 2014

गाँव..की जाड़ा....
खिचड़ी के बाद जमीन पर बिछे पुआल के गद्दों की जरुरत नहीं रह जाती थी,पर हम बच्चे लोग उसे होली तक खेलने के लिए अस्तित्व में बनाये रखते थे ,उस पर सोने का मजा ही अलौकिक था ,डनलप और कसी भी आधुनिकतम गद्दे से लाखगुना बेहतर आराम मिलता था ,और वैसे भी हम रात में सोते थे उत्तर की ओर पैर करके ,सुबह दक्षिण में सूर्योदय होता था . 
पढाई भी होती थी,और दुर्घटनाएं एभी होती थीं ,बताते हैं ,मेरे पिताजी रात में ढिबरी की रौशनी के सामने
पढ़ते-२ सो गए ,जलती ढिबरी गिर गयी ,अगल-बगल पोरा[पुआल ]जलने लगी ,जब उसकी आंच पिताजी को महसूस हुयी तो हडबडा कर पानी-वानी से उसे बुझाये .
वैसे उनके लिए खतरा और ज्यादा इसलिए भी था क्योंकि वे नींद से बचने के लिए अपनी चुंडी रस्सी से उपर खप्पर की छत की करी [मोटी लकड़ी ]में बाँध कर पढ़ते थे ,तो अप्पत्ति अवस्था में बहुत जल्दी भाग भी नहीं सकते थे .इसलिए कह सकते हैं की बाल-बाल बचे थे .
पर गाँव की वे अँधेरी रातें और धुप भरे दिन बहुत हमें ताकतवर बनाये ,जीवन जीने के लिए जो संघर्ष और शिद्दत हम बच्चों को दिखानी पड़ी थी,उसने हमारी प्रतिरोधी क्षमता को बहुत चौचक बना दिया होगा,जिसके बूते ही आज आराम तलबी में समय काटने के बाद भी बीमारियों और परेशानियों से जूझने की दम बनी हुयी है .नहीं तो ये शहरी अप-संस्कृति प्रदुषण के अंधड़ हमें उड़ा ही ले जाते,कहीं का नहीं नहीं छोड़ते .
तो कास्मोपोलिटन निवासियों जरा थोडा-२ अपने 'अमूल बेबियों ' को ताज़ी जुताई हुए सब्जी के ही सही भुरभुरी जमीं में लोटवाइ लाओ भाई .बहुत अलहदा व्यक्तिव निखरै कै संभावना बनी रह सकेगी .
अरहर के खेत की खुत्थी कितनों के पाँवों में घुसी ?हम लोगों को बचपन में खुले में शौच करना ही था ,मेरे गाँव में ५२ बीघे का चारागाह था ,सब उसमे उत्सर्जन करते थे ,थोडा दूर था ,तो हम बालक लोग कई बार तीव्र दबाव के वशीभूत होकर गाँव से सटे खेतों में ही निपटान कर लेते थे ,जिसके लिए अरहर के पेड़ों की छाया सर्वाधिक आदर्श स्थल होती थी,इस चक्कर में कभी-२ सरपट दौड़ भी लग जाती थी...और खेत के अंदर कहीं-कहीं काटी गयी अरहर के पेड़ का निकला मोटा नुकीला तना चाकू की तरह हम लोगों के पैरों में धंस जाता था,खून तेजी से निकलता,उसमे हम हमलोग मिट्टी और खपड़े के टुकड़े लगाकर खून रोकते ,कहटते थे ,की खपड़े का लाल टुकड़ा खून रोक देता है .आज हम वकीलों की भाषा में उस चोट को 'काजिंग हर्ट विथ शार्प वेपन्स '..कह सकते हैं ,यानी अरहर का नुकीला हिस्सा हमारा अपराधी हो जाता था .
के और दिलचस्प काम यह होता था,की निपटान के दौरान यदि अरहर में फल आये होते थे ,तो दो-चार हरे-२ गुच्छे हम लोग मुंह से छील-२ कर खाते रहते थे ...आज सोचते हैं की तमाम 'अन्हाईजेनिकता '
के बावजूद उन पलों को जीना और आज उनकी स्मृति एकदम मस्त कर देती है .